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एक मज़मा / नवीन रांगियाल

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<poem>
घिरती शाम के बाजू में
नीले रंग के इर्दगिर्द
एक ध्रुव तारा इकलौता दूर वहाँ
यहाँ मीठा नीम शरीफ दरगाह में
इबादत ही कर पाते हैं लोग
वहाँ एक गैर मामूली सी गली के नज़दीकतर
हाथ उठाये बगैर
कबूल हो जाती हैं दुवाएं
तेज़ गंध को हाथों में गूंथते यारबाश
धुंए को चुनते हैं बारी- बारी से
गंध और चिंगारी की संगत में
समुंदर तैरते है उनके आगे
छाती में भरते हैं ऐसे
जैसे जिंदगी का आख़िरी दम हो ये कोई
और एक मुकम्मल शून्य हासिल करते हैं अपने लिए
आँखें अपनी जगहें चुन लेती हैं
चरस अपने आप में कुछ नहीं
जब तक वो चिलम से दूर है
उस शाम बेहोशी से बड़ा कुछ भी नहीं
अपनी रियासत छोड़ राजा जनक ने
सिंहासन लगा लिया हो फुटपाथ पर जैसे
और फिर दुनिया उसकी नज़र में
एक मज़मे के सिवाय कुछ भी नहीं।
</poem>
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