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मुझे तस्लीम बे-चून-ओ-चुरा तू हक़-ब-जानिब था / शहराम सर्मदी
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21:14, 7 अगस्त 2019
<poem>
मुझे तस्लीम बे-चून-ओ-चुरा तू हक़-ब-जानिब था
मिरे अन्फ़ास पर लेकिन अजब
पिंदार
पिन्दार
ग़ालिब था
वगर्ना जो हुआ उस से सिवाए
रंज
रँज
क्या हासिल
मगर हाँ मस्लहत की रौ से देखें तो मुनासिब था
अनिल जनविजय
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