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|रचनाकार=भारतेन्दु प्रताप सिंह
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<poem>
खरोंच फूल से लगना कि रात का दिल है,
कहीं जूही कहीं पलास, हो गयी है रात,
हमीं ने बात छेड़ दी थी उस जमाने की
हमारे पास कहीं और खो गयी है रात॥

चांदनी रात के साये कि रात पहने हैं
शरमाती हुयी चांद से कुछ छिपती-सी रात।
हमीं ने रोक रखा पास अपने आहिस्ता
हमारे पास एक मुकाम की-सी हो गयी ये रात॥

हवाओं की आहट रात बात करती है,
जिन्दगी तोड़ती और जोड़ती-सी लगती है।
न जाने क्यों खोई किस लिए खयालों में,
रात के ढलते पहर रात बात करती है॥

सुबह की ओस का कतरा कि रात रोयी है,
गमें तनहाइयों के हलको में सोयी है।
दिनों के साथ मयस्सर न हुये आज तलक,
इसलिए रात, खूब रात-रात-रोयी है।
</poem>