भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गीत 5 / प्रशान्त मिश्रा 'मन'

30 bytes added, 10:39, 5 सितम्बर 2019
{{KKCatGeet}}
<poem>
क्यों प्रणय कीसाधना में मिल रही भाग्य का बस खेल है पीर हमको-यहख़ुश रहो तुम हो जहाँ भीहम कि बस इक मन चुराये और तुमने चोर समझा।तुम्हारे प्रेम को शुभकामनाएं दे रहे हैं।चहचहाते पंक्षियों सँग साँझ-सिंदूरी सुहावन।रह न सकती दूर कोई भी कुमुदनी! जब भ्रमर से।चाँद अपनी चाँदनी में जी रहा था पूर्ण यौवन।फिर कहो क्या पी न सकते हम तुम्हारा रस अधर से।मध्य उनके प्रेम है चुप रहो मत , बोल दो री ,हाय! अब तो बोल दो री! या नहीं यह जानने को-गा क्या तुम्हारी देह को हम यातनाएँ दे रहे थे पीर अपनी और तुमने शोर समझा।हैं.?हम कि बस इक मन चुराए तुम्हारे प्रेम को ...पुष्प निंदा कर न सकता स्वप्न पूरे हों तुम्हारे बस यही है भ्रमर के चुंबनों स्वप्न मन का।ये सहज सौंदर्य वर्धक पुष्प का औ मधुवनों क्षण न होते व्यर्थ कोई अर्थ है अपने मिलन का।देख कर यह दृश्य हमने बस भ्रमर आँख का प्रेम पायाअंजन तुम्हारे बह न जाए एषणा में-और तुमने रुक्ष होकर बस उसे बरज़ोर समझा।सो तुम्हारे स्वप्न को शुचि अर्चनाएं दे रहे हैं।हम कि बस इक मन चुराए तुम्हारे प्रेम को ...प्राण! तुमसे है निवेदन तुम हमें स्वीकार कर लो।हमारे प्रेम का ही आँकलन करने लगीं हो।देह की घुर वेदनाएं कह रहीं हैं अंक भर लो।और अपनी नींद को तुम आप से हरने लगीं हो।मोरनी! तन झूम उठता है छुअन पाकर तुम्हारीजबकि तुम थी और हो भी आज-कल हरपल सुरक्षिततुम हमें समझी न समझी किंतु मन का मोर समझा।चूम कर तुमको महज हम सांत्वनाएँ दे रहे हैं।हम कि बस इक मन चुराए तुम्हारे प्रेम को ...
</poem>
Delete, Mover, Reupload, Uploader
16,477
edits