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{{KKRachna
| रचनाकार= कुमारेंद्र पारसनाथ सिंह
}} <poem>
वह नदी में नहा रही है
नदी धूप में
और धूप उसके जवान अंगों अँगों की मुस्कान मे
चमक रही है।
मेरे सामने
एक परिचित खुश-बूख़ुशबू
कविता की भरी देह में खड़ी है
धरती यहां यहाँ बिल्कुल अलक्षित है-—अंतरिक्ष अन्तरिक्ष की सुगबुगाहट में उसकी आहट सुनी जा सकती है।है ।
आसमान का नीला विस्तार
और आत्मीय हो गया है।है ।
शब्द
अर्थ में ढलने लगे हैं।हैं ।
और नदी
उसकी आंखों आँखों में अपना रूप देख रही है।है ।
आसमान के भास्वर स्वर उसके कानों का छूते हैं,
और वह गुनगुना उठती है।है ।उसके अंदर अन्दर का गीत
[एक नन्हा पौधा]
सूरज की ओर बांहे बाँहे उठाए लगातार बढता जा रहा है।है ।</poem>