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दर्पण / हरीश प्रधान

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<poem>
सब कहते हैं
तुम सही, बिल्‍कुल सही प्रतिबिम्‍ब दिखाते हो
साफ-साफ बताते हो
लगता यों नहीं
जब-जब कोण बदलता हूँ
एक नया प्रतिबिम्‍ब बनता है
आज फिर तुममें झांका
लगा कोई बूढ़ा झांक रहा है
निसंदेह यह मैं तो नहीं
कहाँ गया वह निश्छल चेहरा
सब कुछ खिंचा-खिंचा सा
समय की धूप में
तपा-तपाया सा
या यही वह रूप है
एक प्रश्न चिह्न बनकर तुम टगें हो
शयनागार से मंदिर तक
मन नहीं मानता
न माने
तुम अपना धर्म निभाते हो
दर्पण हो
हर कोण पर
नया रूप दर्शाते हो
कितने रूप बदलते हो
सच, तुम शाश्वत हो
इसी से
अनचाहे सब को हर्षाते हो।
</poem>