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<poem>
एक ही इल्तजा है कि उठा लेना
बोझ बन के जहाँ मैं नहीं रहना।

बात जो ग़लत है उसे ग़लत कहना
लाख बंदिशें हों, चुप नहीं रहना।

घात में दोस्त भी, दुश्मनों की तरह
दिल की हर बात अब नहीं कहना।

कितने ख़ुदगर्ज़, भीड़ के रिश्ते
ख़ाक डालो, यहाँ नहीं रहना।

कद्रदां ही न, जब 'प्रधान' मिले
एक अल्फाज़ भी, नहीं कहना।
</poem>