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दीप दान / केदारनाथ सिंह

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कल्ले फोड़े हैं,
एक दिया वहाँ जहाँ उस नन्हें गेंदे ने
अभी-अभी पहली ही पंखड़ी पँखड़ी बस
खोली है,
एक दिया उस लौकी के नीचे
दिखता है,
एक दिया वहाँ जहाँ अभी-अभी धुले
नये चावल का गंधभरा गन्धभरा पानी फैला है,एक दिया उस घर में -जहाँ नई फसलों फ़सलों की गंध गन्ध छटपटाती हैं,
एक दिया उस
जंगले जँगले पर जिससे
दूर नदी की नाव अक्सर दिख जाती हैं
एक दिया वहाँ , जहाँ झबराबँधता बन्धता है,एक दिया वहाँ , जहाँ पियरी दुहती है,एक दिया वहाँ , जहाँ अपना प्यारा
झबरा
दिन-दिन भर सोता है,
एक दिया उस पगडंडी पगडण्डी पर
जो अनजाने कुहरों के पार
डूब जाती है,
पर पहले अपना यह
आँगन कुछ कहता है,
जाना, फिर जाना!
</poem>
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