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समुन्दर से भी गहरा है तुम्हारी आँख का पानी।
नए लहजे में उभरा है तुम्हारी आँख का पानी।
दुखों की धार से पैदा तरंगों ने इसे चूमा,
हिलोरें ले के निखरा है तुम्हारी आँख का पानी।
 
किसी झरने से निकला या ज़मीं की कोख से आया,
ग़ज़ब का साफ़-सुथरा है तुम्हारी आँख का पानी।
 
इबादत के जो काम आएगा मंदिर और मस्जिद में,
वो गंगा-जल-सा पसरा है तुम्हारी आँख का पानी।
 
बहुत से तीर्थों का ‘नूर’ शामिल बावजूद इसके,
ये काशी और मथुरा है तुम्हारी आँख का पानी।
</poem>
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