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ग़ज़ब का ख़ौफ़ ग़ालिब है कि दुनिया सर झुकाती है।
मगर ऐसा भी होता है कि ये हमको सताती है।
हमें तो साथ देना है तिरा आख़िर क़यामत तक,
ये कैसी ज़िद है तेरी, तू कि जो क़स्में खिलाती है।
 
अभी तो फ़ैस्ला करना असंभव रात में साथी!
मगर ये रात कैसी है हमें डर से सुलाती है।
 
बहुत मुश्किल है जो गुज़री, सँभलकर वो बयां करना,
तबीअत अपनी संजीदा, लहू हमको रुलाती है।
 
ये मुमकिन है कि टकराएँ हमारे दिल भी आपस में,
कभी हो पाएगा ऐसा नज़र सूरत न आती है।
 
सफ़र जो तय किया हमने ज़मीं पर हम सफ़र बनकर,
कहानी उस सफ़र की आज भी बस्ती सुनाती है।
 
सबब क्यों ख़ामुशी का पूछते हो ‘नूर’ से यारो!
किसी की बेरुख़ी है, लब पे जो ताला लगाती है।
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