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ज़माने में रौशन शराफ़त हमारी।
मगर अब कहाँ है ज़रूरत हमारी।
रफ़ीक़े-सफ़र साथ चलते हमारे,
बड़े काम की है विरासत हमारी।
 
अगर ज़हर को हमने पानी कहा तो,
समझ जाएंगे लोग फ़ितरत हमारी।
 
लड़ाई उसूलों की लड़ते रहे वो,
हड़पते रहे जो कि दौलत हमारी।
 
मरे ‘नूर’ हिन्दू, मुसलमां की ख़ातिर,
न देखी किसी ने शहादत हमारी।
</poem>
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