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{{KKRachna
|रचनाकार=प्रताप नारायण सिंह
|अनुवादक=
|संग्रह=छंद-बद्ध/ प्रताप नारायण सिंह
}}
{{KKCatNavgeet}}
<poem>
आनंदित करते हैं प्रायः, यदा-कदा ये छलते हैं।
सोते-जगते रात्रि-दिवस ही, स्वप्न नयन में पलते हैं।।
आशाओं की नौकाओं पर
ख़ुशी लादकर ले आते।
पलकों की चौखट पर बैठे,
हौले हौले मुस्काते।।
किंतु कभी अन्तह-कानन में, अति प्रदग्ध हो जलते हैं।
सोते-जगते रात्रि-दिवस ही, स्वप्न नयन में पलते हैं।।
बचपन के बोए सपने सब
तरुणाई पर छा जाते।
साथ उम्र के बढ़ते बढ़ते,
अम्बर तक लहरा जाते।।
होड़ लगाते हैं सूरज से, संग चाँद के चलते हैं।
सोते-जगते रात्रि-दिवस ही, स्वप्न नयन में पलते हैं।।
कितनी विविध कलाएँ इनकी,
सजते और बिखरते हैं।
कभी उड़ा ले जाते नभ पर
कभी टूट कर झरते हैं।।
एक काँध पर विगत, एक पर, आगत धरे निकलते हैं।
सोते-जगते रात्रि-दिवस ही, स्वप्न नयन में पलते हैं।।
</poem>
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|अनुवादक=
|संग्रह=छंद-बद्ध/ प्रताप नारायण सिंह
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आनंदित करते हैं प्रायः, यदा-कदा ये छलते हैं।
सोते-जगते रात्रि-दिवस ही, स्वप्न नयन में पलते हैं।।
आशाओं की नौकाओं पर
ख़ुशी लादकर ले आते।
पलकों की चौखट पर बैठे,
हौले हौले मुस्काते।।
किंतु कभी अन्तह-कानन में, अति प्रदग्ध हो जलते हैं।
सोते-जगते रात्रि-दिवस ही, स्वप्न नयन में पलते हैं।।
बचपन के बोए सपने सब
तरुणाई पर छा जाते।
साथ उम्र के बढ़ते बढ़ते,
अम्बर तक लहरा जाते।।
होड़ लगाते हैं सूरज से, संग चाँद के चलते हैं।
सोते-जगते रात्रि-दिवस ही, स्वप्न नयन में पलते हैं।।
कितनी विविध कलाएँ इनकी,
सजते और बिखरते हैं।
कभी उड़ा ले जाते नभ पर
कभी टूट कर झरते हैं।।
एक काँध पर विगत, एक पर, आगत धरे निकलते हैं।
सोते-जगते रात्रि-दिवस ही, स्वप्न नयन में पलते हैं।।
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