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{{KKRachna
|रचनाकार=प्रताप नारायण सिंह
|अनुवादक=
|संग्रह=नवगीत/ प्रताप नारायण सिंह
}}
{{KKCatNavgeet}}
<poem>
इससे पहले
स्वीकृति इसको समझा जाए
चुप्पी तोड़ो
लोक-लाज वश, फूल मानकर
शूल न अंगीकार करो तुम
पशुता का आभास मिले यदि
भय से मत श्रृंगार करो तुम
इससे पहले
तन पर नीली धारी आए
चुप्पी तोड़ो
स्वार्थ हेतु कुछ फैलाते जो
घृणा न अंतह में घुलने दो
रोको बढ़कर नरभक्षी के
हिंसक पंजे मत खुलने दो
इससे पहले
लाल रंग से धरा नहाए
चुप्पी तोड़ो
श्रम की भट्टी में तुम तपकर
स्वेद-रक्त से अर्जित करते
बेच तुम्हें कुछ स्वप्न सुनहरे
लोग उसे हैं छल से हरते
इससे पहले
संकोची मन पूर्ण लुटाए
चुप्पी तोड़ो
जो भी रात-दिवस चुभता है
भाग्य मानकर, सहना छोड़ो
"कुछ भी बदल नहीं पाएगा"
खुद से तुम यह कहना छोड़ो
इससे पहले
साहस अपनी जीभ कटाए
चुप्पी तोड़ो
</poem>
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|रचनाकार=प्रताप नारायण सिंह
|अनुवादक=
|संग्रह=नवगीत/ प्रताप नारायण सिंह
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इससे पहले
स्वीकृति इसको समझा जाए
चुप्पी तोड़ो
लोक-लाज वश, फूल मानकर
शूल न अंगीकार करो तुम
पशुता का आभास मिले यदि
भय से मत श्रृंगार करो तुम
इससे पहले
तन पर नीली धारी आए
चुप्पी तोड़ो
स्वार्थ हेतु कुछ फैलाते जो
घृणा न अंतह में घुलने दो
रोको बढ़कर नरभक्षी के
हिंसक पंजे मत खुलने दो
इससे पहले
लाल रंग से धरा नहाए
चुप्पी तोड़ो
श्रम की भट्टी में तुम तपकर
स्वेद-रक्त से अर्जित करते
बेच तुम्हें कुछ स्वप्न सुनहरे
लोग उसे हैं छल से हरते
इससे पहले
संकोची मन पूर्ण लुटाए
चुप्पी तोड़ो
जो भी रात-दिवस चुभता है
भाग्य मानकर, सहना छोड़ो
"कुछ भी बदल नहीं पाएगा"
खुद से तुम यह कहना छोड़ो
इससे पहले
साहस अपनी जीभ कटाए
चुप्पी तोड़ो
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