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अहमद फ़राज़ / परिचय

186 bytes added, 12:52, 23 जून 2009
{{KKRachnakaarParichay|रचनाकार=अहमद फ़राज़}}पाकिस्तान के सुप्रसिद्ध शायर अहमद फ़राज़ का निधन हो गया है. वो 77 वर्ष के थे.
फ़राज़ पिछले कुछ समय से बीमार चल रहे थे और इलाज के लिए अमरीका भी गए थे.
ग़ज़ल गायक मेहदी हसन की आवाज़ में अहमद फ़राज़ की ग़ज़ल-
रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ<br>आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ<br>
दुनिया भर में इतनी लोकप्रिय हुई कि एक बार अहमद फ़राज़ ने कहा कि मेहदी साहब ने इस ग़ज़ल को इतनी अच्छी तरह गाया है कि यह उनकी ही ग़ज़ल हो चुकी है.
अहमद फ़राज़ की यह पंक्तियां याद आती हैं जो उनके जाने को अच्छी तरह बयान करती हैं:
क्या ख़बर हमने चाहतों में फ़राज़<br>क्या गंवाया है क्या मिला है मुझे<br>
उन्होंने अपने एक इंटरव्यू में कहा कि दुखी लोगों ने मुझे बहुत प्यार दिया. उनका एक मशहूर शेर है:
अब और कितनी मुहब्बतें तुम्हें चाहिए फ़राज़,<br>माओं ने तेरे नाम पे बच्चों के नाम रख लिए. <br>
उन्हें 2004 में पाकिस्तान का सबसे बड़ा सम्मान हिलाले-इम्तियाज़ दिया गया जिसे उन्होंने बाद में विरोध प्रकट करते हुए वापस कर दिया.
अहमद फ़राज़ के कुछ लोकप्रिय अशआरः
इस से पहले के बे-वफ़ा हो जाएं
क्यों न ऐ दोस्त हम जुदा हो जाएं
*इस से पहले के बे-वफ़ा हो जाएं<br> क्यों न ऐ दोस्त बन कर भी नहीं साथ निभानेवालावही अंदाज़ है ज़ालिम का ज़मानेवाला हम जुदा हो जाएं<br>
वक़्त ने वो ख़ाक उड़ाई है के दिल के दश्त सेक़ाफ़िले गुज़रे हैं फिर *दोस्त बन कर भी नक़्श-ए-पा कोई नहींसाथ निभानेवाला<br>वही अंदाज़ है ज़ालिम का ज़मानेवाला <br>
करूँ न याद अगर किस तरह भुलाऊँ उसेग़ज़ल बहाना करूँ और गुनगुनाऊँ उसे *वक़्त ने वो ख़ाक उड़ाई है के दिल के दश्त से<br>क़ाफ़िले गुज़रे हैं फिर भी नक़्श-ए-पा कोई नहीं<br>
जो भी दुख याद *करूँ था याद आयाआज क्या जानिए क्या याद आयायाद आया था बिछड़ना तेराफिर नहीं याद कि क्या याद आयाअगर किस तरह भुलाऊँ उसे<br>ग़ज़ल बहाना करूँ और गुनगुनाऊँ उसे <br>
तुम *जो भी ख़फ़ा हो लोग भी बरहम हैं दोस्तोअब हो चला यक़ीं के बुरे हम हैं दोस्तोकुछ दुख याद न था याद आया<br>आज शाम ही से है दिल भी बुझा-बुझाकुछ शहर के चिराग़ भी मद्धम हैं दोस्तो क्या जानिए क्या याद आया<br>याद आया था बिछड़ना तेरा<br>फिर नहीं याद कि क्या याद आया<br>
*तुम भी ख़फ़ा हो लोग भी बरहम हैं दोस्तो<br>अब हो चला यक़ीं के बुरे हम हैं दोस्तो<br>कुछ आज शाम ही से है दिल भी बुझा-बुझा<br>कुछ शहर के चिराग़ भी मद्धम हैं दोस्तो <br> *अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें<br>जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें<br>ढूँढ उजड़े हु्ए लोगों में वफ़ा के मोती<br>ये ख़ज़ाने तुझे मुमकिन है ख़राबों में मिलें<br>तू ख़ुदा है न मेरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा<br>दोनों इंसाँ हैं तो क्यों इतने हिजाबों में मिलें.<br>