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|रचनाकार=दाग़ देहलवी
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बुतान-ए-महविश उजड़ी हुई मंज़िल में रहते हैं
कि जिस की जान जाती है उसी के दिल में रहते हैं
बुतान-ए-माहवश उजड़ी हुई मंज़िल हज़ारों दाग़ पिन्हाँ आशिक़ों के दिल में रहते हैं<br>के जिस शरर पत्थर की जान जाती है उसी के दिल सूरत उन की आब-ओ-गिल में रहते हैं<br><br>
हज़ारों हसरतें वो हैं कि रोके ज़मीं पर पाँव नफ़रत से नहीं रुकतीं<br>रखते परी-पैकर बहोत अर्मान ऐसे हैं कि दिल के दिल ये गोया इस मकाँ की दूसरी मंज़िल में रहते हैं<br><br>
ख़ुदा रक्खे मुहब्बत के लिये आबाद दोनों घर्<br>मैं उन के दिल मोहब्बत में रहता हूँ वो मेरे दिल मज़ा है छेड़ का लेकिन मज़े की हो हज़ारों लुत्फ़ हर इक शिकवा-ए-बातिल में रहते हैं<br><br>
ज़मीं पर पाँव नख्वत से नहीं रखते परी-पैकर<br>ख़ुदा रक्खे सलामत जिन को उन को मौत कब आए ये गोया इस मकाँ की दूसरी मंज़िल तड़पते लोटते हम कूचा-ए-क़ातिल में रहते हैं<br><br>
कोई नामहज़ारों हसरतें वो हैं कि रोके से नहीं रुकतीं बहुत अरमान ऐसे हैं कि दिल के दिल में रहते हैं  यहाँ तक थक गए हैं चलते चलते तेरे हाथों से कि अब छुप छुप के नावक सीना--निशाँ पूछे तो बिस्मिल में रहते हैं  न देखे होंगे रिंदों से भी तू ने पाक क़ासिद बता देना<br>ज़ाहिद तख़ल्लुस "कि ये बे-दाग़" मय-ख़ाने की आब-ओ-गिल में रहते हैं  मुहीत-ए-इश्क़ की हर मौज तूफ़ाँ-ख़ेज़ ऐसी है और आशिक़ों वो हैं गिर्दाब में जो दामन-ए-साहिल में रहते हैं  ख़ुदा रक्खे मोहब्बत ने किए आबाद दोनों घर मैं उन के दिल में रहता हूँ वो मेरे दिल में रहते हैं जो होती ख़ूब-सूरत तो न छुपती क़ैस से लैला मगर ऐसे ही वैसे पर्दा-ए-महमिल में रहते हैं  हमारे साए से बचता है हर इक बज़्म में उस की हमें देखो कि हम तन्हा भरी महफ़िल में रहते हैं  सुराग़-ए-मेहर-ओ-उल्फ़त ग़ैर के दिल में न पाएँगे अबस वो रात दिन इस सई-ए-बे-हासिल में रहते हैं  बुतों को महरम-ए-असरार तू ने क्यूँ किया या रब कि ये काफ़िर हर इक ख़ल्वत-सरा-ए-दिल में रहते हैं  फ़लक दुश्मन हुआ गर्दिश-ज़दों को जब मिली राहत ज़ियादा राह से खटके मुझे मंज़िल में रहते हैं  तन-आसानी कहाँ तक़दीर में हम दिल-गिरफ़्तों की ख़ुदा पर ख़ूब रौशन है कि जिस मुश्किल में रहते हैं </poem>