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18:31, 28 अगस्त 2008 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=महेन्द्र भटनागर
|संग्रह= विहान / महेन्द्र भटनागर
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<poem>
गीत गाता जा रहा हूँ !
रक्त की संस्कृति मिटाने को सुनाता हूँ नये स्वर,
मैं दिशा भूले जगत को, हूँ चलाता नव डगर पर,
:हर मनुज को घोर तम से रोशनी में ला रहा हूँ !
कर रहा हूँ मैं नयी युग-सृष्टि का अविराम चिंतन,
उस नये युग का कि जिसमें है जटिल जीवन न दर्शन,
:और जिसको, साँस पर हर, पास अपने पा रहा हूँ !
नग्न, दुर्बल, त्रास्त, पीड़ित, नत, बुभुक्षित जो रहे हैं,
दुःख क्या अपमान कटुतर ही सदा जिनने सहे हैं,
:जो तिरस्कृत आज तक, उनको उठाता जा रहा हूँ !
1945