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युग-गायक / महेन्द्र भटनागर

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गीत गाता जा रहा हूँ !

रक्त की संस्कृति मिटाने को सुनाता हूँ नये स्वर,
मैं दिशा भूले जगत को, हूँ चलाता नव डगर पर,
:हर मनुज को घोर तम से रोशनी में ला रहा हूँ !

कर रहा हूँ मैं नयी युग-सृष्टि का अविराम चिंतन,
उस नये युग का कि जिसमें है जटिल जीवन न दर्शन,
:और जिसको, साँस पर हर, पास अपने पा रहा हूँ !

नग्न, दुर्बल, त्रास्त, पीड़ित, नत, बुभुक्षित जो रहे हैं,
दुःख क्या अपमान कटुतर ही सदा जिनने सहे हैं,
:जो तिरस्कृत आज तक, उनको उठाता जा रहा हूँ !
1945
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