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Kavita Kosh से
|संग्रह=अनुष्टुप / अनामिका
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धीरे-धीरे जगहें छूट रही हैं,
बढ़ना सिमट आना है वापस--अपने — अपने भीतर!
पौधा पत्ती-पत्ती फैलता
बच जाता है बीज-भर,
और अचरज में फैली आँखें
बचती हैं , बस बूँद, बून्द-भर!
छूट रही है पकड़ से
अभिव्यक्ति भी धीरे-धीरे!
किसी कालका-मेल से धड़धड़ाकर
सामने से जाते हैं शब्द निकल!एक पैर हवा में उठाये,गठरी तानेबिल्कुल आवाक खड़े रहते हैंगंतव्य!
एक पैर हवा में उठाए,
गठरी ताने
बिल्कुल अवाक खड़े रहते हैं
गन्तव्य !
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