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<poem>
अन्न उगाकर माँ धरती पर,
सबकी भूख मिटाते हैं।
भू के सच्चे लाल कृषक हैं,
मिट्टी स्वर्ण बनाते हैं।

सुख की तनिक न चिंता उनको,
त्याग-तपस्या जीवन है।
गर्मी-ठंठी बरसातों से,
उनका ज्यों गठबंधन है।

इंद्र-देव की कृपा मिले यदि,
फसलें खूब उगाते हैं।

कष्ट-भरा है जीवन उनका,
सारी दुनिया कहती है।
कर्ज और बीमारी में ही,
जीवन संध्या ढ़लती है।

खेत और खलिहानों में ही,
सारा समय बिताते हैं।

फटे-पुराने कपड़े तनपर,
नित सुखी रोटी खाते।
पर जीवन की बाधाओं से,
कभी-नही वह घबराते।

हरी-भरी वसुधा रखकर,
अपना फर्ज निभाते हैं।

कर्म-भूमि को पूँजी समझें,
कार्य निरंतर करतें हैं।
कृषक प्रकृति के सहचर होते,
संस्कृति जीवित रखतें हैं।

अनबन खुशियों से रहती है,
फिर भी वह मुस्काते हैं।
</poem>
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