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कितना बदल गया / राहुल शिवाय

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<poem>
छायादार वृक्ष आँगन का
कितना बदल गया

ठूूँठ हो गईं हैं शाखायें
विहग नहीं आते
मीठे फल से ही थे केवल
सब रिश्ते-नाते

जीवन का पतझड़, जीवन का
हर सुख निगल गया

जो कल तक सावन के झूले
बाँहों में झूला
वह बचपन के किस्सों के सँग
आँगन भी भूला

सन्नाटे की गर्मी पाकर
तन-मन पिघल गया

आँखों में उत्सव का दीया
रोज जलाता है
जकड़े आँगन को जड़ से
मिट्टी सहलाता है

बंद हाथ से बालू जैसा
सबकुछ फिसल गया
</poem>
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