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हे कलयुग के राम झूल जाओ प्राण तज दो सिया की अग्निपरीक्षा कब तक लोगेक्यों न बोलें ये व्यथाएँ
नारी का सम्मान यही है जो हमेशा ही सहेजा देह है नारी घुटती रहे महल में तो सति है बेचारी लछमन रेखा मर्यादा की पार नहीं की पर नग्न होकर वह आँगन पार गई पड़ा था तो भाग्य भाल पर गिद्ध नर के सामने बस क्या लिक्खोगेमान माँसल चीथड़ा था
देख न पाए करती देह पर ज्यों चल रही जो हैंहृदयनाग-समर्पण न्योछावर कर डाला उसने तन, मन, जीवनमाली का है मूल्य चुकाया याकि पुष्प का एक बार अंतर में झांक स्वयं से पूछो तब समझोगेसी अब भी भुजाएँ
बहुत सरल है दुनिया में था यही अपराध तन का संबंध बनाना नहीं सरल पर दुनिया में संबंध निभाना अगर परीक्षा ही लेनी है तुम भी दे दो क्या वनवास सिया वह किसी को देकर भा गया था अग्निपरीक्षा खेलने की चीज थी जोतुम भी दोगेखेलकर छोड़ा गया था
रचनाकाल-14 फरवरी 2018है हुआ अभियोग तन पर औ घृणा करती दिशाएँ पाँडवी आक्रोश भी जब व्यस्त है सबकुछ भुलाकर नृप बना धृतराष्ट्र सम जबहै सभा चुप, सिर झुकाकर  हस्तिनापुर लिख रहा हैकृष्ण बिन जब विवशताएँ
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