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{{KKRachna
|रचनाकार=ऋतु त्यागी
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
मेरी बूढ़ी जर्जर होती माँ
घड़ी अटकाकर कलाई पर
समय की चिन्दियों को
गाँठ में बाँधकर
आज भी जीती है सिर्फ़ आज
नकली दाँतों को फेंककर कूड़े में
जबड़े की गाँठों से ही
चबा लेती है
रोटी का हर कौर
और
स्वाद को निचोड़ लेती है कटोरी भर
छुटपन की भागती-दौड़ती स्मृतियों से
झाँकती मेरी माँ
हर दिन अपने छोटे-छोटे
नाखूनों पर रच लेती है
अपने अनगढ़ सपनों की सजीली आकृति
झटपट लपेटती है धोती
घर की ड्योढ़ी पर खड़ी मेरी माँ
पढ़ नहीं सकती
पर जीती है अपनी शर्तों पर
स्त्री विमर्श।
</poem>
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मेरी बूढ़ी जर्जर होती माँ
घड़ी अटकाकर कलाई पर
समय की चिन्दियों को
गाँठ में बाँधकर
आज भी जीती है सिर्फ़ आज
नकली दाँतों को फेंककर कूड़े में
जबड़े की गाँठों से ही
चबा लेती है
रोटी का हर कौर
और
स्वाद को निचोड़ लेती है कटोरी भर
छुटपन की भागती-दौड़ती स्मृतियों से
झाँकती मेरी माँ
हर दिन अपने छोटे-छोटे
नाखूनों पर रच लेती है
अपने अनगढ़ सपनों की सजीली आकृति
झटपट लपेटती है धोती
घर की ड्योढ़ी पर खड़ी मेरी माँ
पढ़ नहीं सकती
पर जीती है अपनी शर्तों पर
स्त्री विमर्श।
</poem>