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<poem>
बे-तमन्ना हूँ ख़स्ता-जान हूँ मैं
एक उजड़ा हुआ मकान हूँ मैं

जंग तो हो रही है सरहद पर
अपने घर में लहूलुहान हूँ मैं

ग़म-ओ-आलाम भी हैं मुझ को अज़ीज़
क़द्र-दानों का क़द्र-दान हूँ मैं

ज़ब्त तहज़ीब है मोहब्बत की
वो समझते हैं बे-ज़बान हूँ मैं

लब पे इख़्लास हाथ में ख़ंजर
कैसे यारों के दरमियान हूँ मैं

छेद ही छेद हैं फ़क़त जिस में
ऐसी कश्ती का बादबान हूँ मैं

जो किसी को भी आज याद नहीं
भूली-बिसरी वो दास्तान हूँ मैं

या गिराँ-गोश है नगर का नगर
या किसी दश्त में अज़ान हूँ मैं

शाइ'री हो कि आशिक़ी 'आबिद'
हर रिवायत का पासबान हूँ मैं
</poem>
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