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|रचनाकार=विजय राही
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<poem>
शजर की सरपरस्ती माँगता है ।
परिन्दा एक टहनी माँगता है ।

उतर कर वो मेरी आँखों के रस्ते,
मक़ाने-दिल की चाबी माँगता है ।

मेरे लहजे पे दरिया बोल उठ्ठा,
कोई ऐसे भी पानी माँगता है...?

पकड़ लेता है दिल ही हाथ वरना,
गला मेरा तो रस्सी माँगता है ।

कभी जब वस्ल की होती है बातें,
वो मुझसे रात सारी माँगता है ।

मेरा दिल भी फ़कीरों की तरह है,
ये सहराओं से पानी माँगता है ।

वो जब आनी है, तब आयेगी 'राही',
तू क्यों पटरी पे गाडी माँगता है ।
</poem>
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