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07:03, 25 मार्च 2020 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=विजय राही
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<poem>
मग़रूरी में किसको किसका ध्यान रहा ।
दरिया भी अपने को सागर मान रहा ।
मेरा क़ातिल मेरे अन्दर था लेकिन,
मरते दम तक मैं उससे अंजान रहा ।
दुख ने ही जीवनभर साथ दिया मेरा ,
सुख तो केवल दो दिन का महमान रहा ।
जो भी तर थे पारावार मिला उनको,
और प्यासों के हिस्से रेगिस्तान रहा ।
वो भी मुझको दो दिन में ही भूल गया,
मेरा भी आगे रस्ता आसान रहा ।
</poem>