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हाइकु -१ / मोहित नेगी मुंतज़िर

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<poem>
बेपरवाह है
फिरता दर दर
रमता जोगी।

चलते जाओ
यही तो है जीवन
नदिया बोली

जनता से ही
करता है सिस्टम
आंखमिचोली।

घूमो जाकर
किसी ठेठ गांव में
भारत ढूँढ़ो।

लक्ष्य है पाना
तुम एक बनाओ
दिन रात को।

कुछ कर लो
सौभाग्य से है मिला
मानव तन ।

रोते हो अब
काश। पकड पाते
जाता समय।

अँधेरा हुआ
ढल गई है शाम
यौवन की।

रात मिलेगा
प्रियतम मुझको
चांद जलेगा।

आ जाओ तुम
एक दूजे मैं मिल
हो जाएं ग़ुम।

पहाड़ी बस्ती
अंधेरे सागर में
छोटी सी कश्ती।

आंखें हैं नम
अपनो से हैं अब
आशाये कम।

रिश्ता है कैसा
सुख में हैं अपने
मक्कारों जैसा।
</poem>
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