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18:07, 23 अप्रैल 2020 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार= मानोशी
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<poem>जाने कितने जन्मों का 
सम्बंध फलित है इस जीवन में ।।
खोया जब ख़ुद को इस मद में
अपनी इक नूतन छवि पायी,
और उतर कर अनायास 
नापी मन से मन की गहराई,
दो कोरों पर ठहरी बूँदें
बह कर एकाकार हुईं जब,
इक चंचल सरिता सब बिसरा 
कर जाने कब सिंधु समायी ।
सब तुममय था, तुम गीतों में
गीत गूँजते थे कन-कन में।।
मिलने की बेला जब आयी 
दोपहरी की धूप चढ़ी थी,
गीतों को बरखा देने में
सावन ने की देर बड़ी थी,
होंठों पर सुख के सरगम थे,
पीड़ा से सुलगी थी साँसें,
अंगारों के बीच सुप्त सी 
खुलने को आकुल पंखुड़ी थी ।
पतझर में बेमौसम बारिश 
मोर थिरकता था ज्यों मन में ।।
थीं धुँधली सी राहें उलझीं
पर ध्रुवतारा लक्ष्य अटल था, 
बहुत क्लिष्ट थी दुनियादारी 
मगर हृदय का भाव सरल था,
लपटों बीच घिरा जीवन पर 
साथ तुम्हारा स्निग्ध चाँदनी,
पाषाणों के बीच पल रहे 
भावों का अहसास तरल था ।
है आनंद पराजय में भी 
कितना सुख है निज अर्पन में ।।
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