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माहिए (71 से 80) / हरिराज सिंह 'नूर'

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|रचनाकार=हरिराज सिंह 'नूर'
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|संग्रह=बादे सबा / हरिराज सिंह 'नूर'
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<poem>
71. उस झील किनारे मैं
और नहीं कोई
यादों के सहारे मैं

72. मुँह ‘काग’ ने खोला है
छत पे मिरी आकर
मन मेरा भी डोला है

73. इन्सां कहाँ सोता है
दर पे तिरे आकर
सजदे में वो होता है

74. सत्संग बिना पगली
ज्ञान नहीं होता
है ज्ञान यही अस्ली

75. ‘ख़्वाजा’ का वो दर जिस पर
ख़्वाब सँवर जाएं
तू देख ज़रा चल कर

76. अमृत-सा ये पानी है
लाएं जो गंगा-जी
पुरखों की निशानी है

77. क़िस्मत का ही लेखा है
आगे जो होना है
पर किसने वो देखा है

78. कैसी है ये जलधारा
पाप मिटाए जो
मन सोचे है बेचारा

79. किस तरह की ये माटी
लगती है चंदन जो
बेवज्ह की परिपाटी

80. गायों का ये रेला है
दश्त में क्यों आया
गोधूलि की बेला है
</poem>
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