{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|संग्रह=अकेले कंठ की पुकार / अजित कुमार
}}
आकाश स्थिर
और सब अस्थिर
मगर आकाश सुस्थिर है ।
अचिर सब है,
शून्य का, पर, भाव यह चिर है ।
नभ असीम, अपार का
वैभव अदृष्ट, अमाप;
मनुज है ऊँचा बहुत,
पर यहाँ नतशिर है ।
{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=अजित कुमार|संग्रह=अकेले कंठ की पुकार / अजित कुमार}}अचिर सब है,
नींद में डूबे योद्धा सुरक्षित हैंशून्य का, पर, भाव यह चिर है ।
कौंधती उधर किरनेंलड़ने को आती हैं । हम तो अप्रस्तुत हैं ।डूबे हैं नींद मेंनभ असीम,खोए हैं स्वप्न में,चेतन से परे ये हमलीन हैं अचेतन में । हम तो अप्रस्तुत हैं, इसलिए सुरक्षित हैं ।अपार का
आख़िर हमसे क्या लेगा उजाला ?आख़िर क्या कर लेंगी किरनें हमारा ?उनके पैने-तीखे तीर सभी व्यर्थ हैं ।होएँ हम किरणों से भले ही अपरिचितपर ज्ञात है हमें तो— वे गन्दी हैंवैभव अदृष्ट, नीच और घृणित और कुत्सित है, रखती अपेक्षा हैं नींद तोड़ने की वे । दंभ-मात्र ही है यह ।अमाप;
मनुज है ऊँचा बहुत,
जाओ अनुचरो, अरे निशि के अनुचरो ।कहो—नहीं है अप्रस्तुत हम ।सज्जित हैं, रक्षित हैं, पालित हैं --सुप्ति के कवच में ।यह राज्य हमारा है ।किरणों के चापों पर ध्यान नहीं देंगे हम --स्वप्नों के अभयद कुंडलों से अलंकृत हैं । … कितना ही कहो हमें—‘सूर्यपुत्र । सूर्यपुत्र ।उसका पितृत्व यहाँ कौन स्वीकारता ।तुम्हीं हो असत्य-पक्ष, तुम्हीं दस्यु, अन्यायी ।धर्मयुद्ध को हम धर्मयुद्ध नहीं मानते । हम तो हैं वीर कर्ण ।वीर कर्ण । --मूर्ख नहीं ।दान नहीं देंगे हम ।कवच और कुंडल हम कभी नहीं त्यागेंगे—क्या मारे जाएँगे ?? हम हैं कूटज्ञ कर्ण, धूर्त कर्ण, चतुर कर्ण :दानी नहीं ।और यों सुरक्षित हैं उसके उजाले सेसंभव है, जिससे हम कभी कहीं जन्मे हों । {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=अजित कुमार|संग्रह=अकेले कंठ की पुकार / अजित कुमार}} आभार-स्वीकार ‘दर्द’ तुमने कहा जिसकोऔर यों दुखती हुई रग जान लीमैंने अभी तक सहा जिसको । उसीको-हाँ, छिपाने के लिये उसकोगीत गाये थे,अधूरे और पूरे गीत गाये थे । जान ही जब लिया तुमनेशेष और भला बचा क्या ।दर्द के अतिरिक्त हमनेसहा याकि रचा भला क्या । कहीं कुछ भी नहीं : केवल प्यास, केवल आग । धब्बे, चिन्ह, बेबस दागयही थे-जिनको बहाने के लिये आँसू छिपाये थे । तुम्हींने यह भी कहा था- ‘मिटाने पर मिट न जाये दर्द यह ऐसा नहीं है । शर्त लेकिन एक है- उस दर्द में मत रमो । देखो। पाल खोलो, उठाओ लंगर, चलो- दुखती हुई रग के सदृश यह द्वीप त्यागो ।‘तुम्हींने हमसे कहा था- ‘अरे, जागो ।‘ और उस कहने तथाखुद भी बहुत सहने के कारनमुक्ति की जब घड़ी आई- स्वत: बन्दी बना था जिस द्वीप में उससे विलग हो, पाल खोले मुक्त नाविक ने उधर … उस द्वीप को जाती लहर परपुष्प अंजलि से बहाये थे । आज वह सब व्यक्त हैजिसको छिपाने के लिये …छिपा देने के लिये कुल गीत गाये थे ।आज सचमुच मुक्त हैजिसको बहाने के लिये …बहा देने के लिये आँसू छिपाये थे ।आज तो वह त्यक्त हैवह दर्द भी : वह द्वीप भी …वही जिस तक पुष्प अंजलि से बहाये थे । {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=अजित कुमार|संग्रह=अकेले कंठ की पुकार / अजित कुमार}}उजड़े मेले में कुछ तो वह अजब तमाशा थाकुछ हम भी थे ऐसे …रह गये देखते, और जान ही सके नहीं-कब गुज़र गया सबखत्म हुआ कैसे ॥ जब चेत हुआ तो क्या देखा कुछ बिखरे-बिखराये कागज़ कुछ टूटे-फूटे पात्र पड़े । सारा मेला है उजड़ चुका, बस, एक अकेले हमीं खड़े । जिस जगह बड़ा सा घेरा था, केवल कुछ गड्ढे शेष रहे । सुलगती लकड़ियां, राख और मैले पन्ने, उतरे छिलके :जो यही पूछते-से लगत- ‘रे, कौन यहां पर आया था ? यह किसका रैन-बसेरा था ?यह उजड़ा मेला उखड़े हुए नशे जैसा, सारे मोहक आकारों के सौ-सौ टुकड़े । सब आकर्षक ध्वनियां- अब केवल ‘भाँय-भाँय’ । रंगों के बदले-फीके,मटमैले धब्बे । वह एक तमाशा था … लेकिन उलझी-सुलझी रस्सियां, बांस गांठोंवाले … कुम्हलाये हुए फूल-पत्ते… सारे का सारा आसपास जो दिखता है बेहद उदास : यह भी तो एक तमाशा है । उजड़े-बिखरे, टूटे-फूटेकी भी तो कोई भाषा है। कीचड़ से भरी तलैया का गँदला पानीचुपके-चुपके कहता-सा है—‘अधजली घास हरियाएगी… गँदले पानी को थपकी देती हुई हवाकुछ राख उड़ाकर ले जाती ,कुछ धूल उड़ाकर ले आती:अबतिरछे-सीधे चरण-चिन्ह,सबगहरे,ठहरे, बड़े चिन्हधीरे-धीरे मिट जाएँगे ।लगने दो मेला और कहीं । {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=अजित कुमार|संग्रह=अकेले कंठ की पुकार / अजित कुमार}} संक्रमण चलते थे जिनपरवे सड़कें भी मुड़-तुड़ करखतम हो गई थी, ।सब आवाजेंकभी यहाँ, कभी वहाँ –थोड़ी या बहुत देर—बोल : सो गई थीं । दोस्तसुबह-शाम, रात-रात भरबातें कर: चुप थे,अब रीते थे ।और अधिक मादकता, आकुलता, विह्ललता जगा नहीं पाते थे दिन वे—जो बीते थे। हर क्षण जो बढती थीवही उम्र कहीं, किसी जगह रुक गई थी,और रात—पहाड़ी पर : कुछ घंटों के खातिर ? नहीं—सदा-सर्वदा के लिए झुक गई थी । पेड़ों-पौधों-फूलों का उगना बन्द था , पंचम स्वर तक पहुँचा हुआ गीतमन्द था। बहुत तेज़ गति सेबहनेवाली धारा अब वर्षा की नदी-सदृशरेती में खोई थी ।फ़सल : कट-कटा कर, सबखतम हो चुकी थी,जो साधों से बोई थी । वह ठहरी-ठहरी वय ।निर्मम जड़ता की जय ।बहरी स्थिरता का भय्। लहरों-काँटों-चहारदीवारों :अवरोधों-कुंठा-सीमा-भारों :का दुर्जर घेरा था । यह था : जो मेरा था ।इसीलिए घेरा तोड़ा मैंने,जो ‘मेरा’ था : वह छोड़ा मैंने । नई धवलगात रात ,नवल ज्योति-स्नात प्रात,जाग्रत जीवन, कलरव,नए जगत, नव अनुभव ,भिन्न दृश्य, पथ, चित्रों,स्नेही-निश्छ्ल मित्रोंके लिए प्रतीक्षा की ।इनसे फिर दीक्षा ली । {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=अजित कुमार|संग्रह=अकेले कंठ की पुकार / अजित कुमार}} वर्ष नया कुछ देर अजब पानी बरसा ।बिजली तड़पी, कौंधा लपका … फिर घुटा-घुटा सा, घिरा-घिरा हो गया गगन का उत्तर-पूरब तरफ़ सिरा । बादल जब पानी बरसायेतो दिखते हैं जो,वे सारे के सारे दृश्य नज़र आये । छप-छप,लप-लप, टिप-टिप, दिप-दिप,- ये भी क्या ध्वनियां होती हैं ॥सड़कों पर जमा हुए पानी में यहां-वहांबिजली के बल्बों की रोशनियां झांक-झांकसौ-सौ खंडों में टूट-फूटकर रोती हैं। यह बहुत देर तक हुआ किया … फिर चुपके से मौसम बदला तब धीरे से सबने देखा- हर चीज़ धुली,हर बात खुली सी लगती हैजैसे ही पानी निकल गया । यह जो आया नतशिर है वर्ष नया-वह इसी तरह से खुला हुआ ,वह इसी तरह का धुला हुआबनकर छाये सबके मन में ,लहराये सबके जीवन में । दे सकते हो ?--दो यही दुआ ।