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|रचनाकार=नोमान शौक़
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मैं नहीं चाहता<br />
कोई झरने के संगीत सा<br />
मैं अब<br />
झुंझलाहट का पुर-शोर सैलाब हूंहूँ<br />
क़स्ब:-व-शहर को एक गहरे समुन्दर<br />
में ग़र्क़ाब करने के दरपै हूं।दर पै हूँ।<br />
मैं नहीं चाहता<br />
वाहवाही मिले<br />
और मैं अपनी मसनद प' बैठा हुआ<br />
पान खाता रहूंरहूँं<br />मुस्कुराता रहूं।रहूँ।<br />
मैं नहीं चाहता<br />
सिर रखके रोते रहे<br />
मैं भी और मेरे अजदाद भी<br />
अपने कानों में ही सिसकियां सिसकियाँ भरते -भरते<br />
मैं तंग आ चुका<br />
बस -<br />
अब मुख़ातिब की शह-रग में भी<br />
दौड़ता, शोर करता हुआ<br />
देखना चाहता हूं।हूँ।<br />
मैं नहीं चाहता<br />
गालियां दूं दूँ किसी को<br />
तो वह मुस्कुरा कर कहे -'मरहबा'<br />
मुझे इतनी मीठी जुबां जुबाँ की<br />
ज़रुरत नहीं।<br />