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नृप पुरुरवा से मिलने को वह अत्यंत विकल थी
कहती थी,”यदि आज कांत का अंक नही पाउँगी,
तो शरीर को छोड- पवन मॅ में निश्चय मिल जाउँगी.”
“रोक चुकी तुम बहुत, अधिक अब और न रोक सकोगी
दिव मॅ रखकर मुझे नही जीवित अवलोक सकोगी.
भला चाह्ती चाहती हो मेरा तो वसुधा पर जाने दो,मेरे हित जो भी संचित हो भाग्य, मुझे पाने दो.दो।नही दीखती कही शांति मुझको अब देव निलय मॅमेंबुला रहा मेरा सुख मुझ को प्रिय के बाहु-वलय मॅ.में।
स्वर्ग-स्वर्ग मत कहो ,स्वर्ग मॅ में सब सौभाग्य भरा है,
पर, इस महास्वर्ग मॅ मेरे हित क्या आज धरा है?
स्वर्ग स्वप्न का जाल, सत्य का स्पर्श खोजती हूँ मै,
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