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|संग्रह=कनुप्रिया / धर्मवीर भारती
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<poem>
यह जो अकस्मात्
आज मेरे जिस्म के सितार के
एक-एक तार में तुम झंकार उठे हो-
सच बतलाना मेरे स्वर्णिम संगीत
तुम कब से मुझ में छिपे सो रहे थे।
यह जो अकस्मात्<br>सुनो, मैं अक्सर अपने सारे शरीर को-आज मेरे जिस्म के सितार के<br>एकपोर-एक तार पोर को अवगुण्ठन में ढँक कर तुम्हारे सामने गयीमुझे तुम झंकार उठे हो-<br>से कितनी लाज आती थी,सच बतलाना मेरे स्वर्णिम संगीत<br>मैं ने अक्सर अपनी हथेलियों मेंअपना लाज से आरक्त मुँह छिपा लिया हैमुझे तुम कब से मुझ कितनी लाज आती थीमैं अक्सर तुम से केवल तम के प्रगाढ़ परदे में छिपे सो रहे थे।<br><br>मिलीजहाँ हाथ को हाथ नहीं सूझता थामुझे तुम से कितनी लाज आती थी,
सुनो, मैं अक्सर अपने सारे शरीर को-<br>पोर-पोर को अवगुण्ठन में ढँक कर तुम्हारे सामने गयी<br>मुझे तुम से कितनी लाज आती थी,<br>मैं ने अक्सर अपनी हथेलियों में<br>अपना लाज से आरक्त मुँह छिपा लिया है<br>मुझे तुम से कितनी लाज आती थी<br>मैं अक्सर तुम से केवल तम के प्रगाढ़ परदे में मिली<br>जहाँ हाथ को हाथ नहीं सूझता था<br>मुझे तुम से कितनी लाज आती थी,<br><br> पर हाय मुझे क्या मालूम था<br>कि इस वेला जब अपने को<br>अपने से छिपाने के लिए मेरे पास<br>कोई आवरण नहीं रहा<br>तुम मेरे जिस्म के एक-एक तार से<br>झंकार उठोगे<br>सुनो ! सच बतलाना मेरे स्वर्णिम संगीत<br>इस क्षण की प्रतीक्षा में तुम<br>कब से मुझ में छिपे सो रहे थे। <br/poem>
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