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|संग्रह=कनुप्रिया / धर्मवीर भारती
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<poem>
घाट से लौटते हुए
तीसरे पहर की अलसायी बेला में
मैं ने अक्सर तुम्हें कदम्ब के नीचे
चुपचाप ध्यानमग्न खड़े पाया
मैं न कोई अज्ञात वनदेवता समझ
कितनी बार तुम्हें प्रणाम कर सिर झुकाया
पर तुम खड़े रहे अडिग, निर्लिप्त, वीतराग, निश्चल!
तुम ने कभी उसे स्वीकारा ही नहीं !
घाट से लौटते हुए<br>तीसरे पहर की अलसायी बेला में<br>दिन पर दिन बीतते गयेऔर मैं ने अक्सर तुम्हें कदम्ब के नीचे<br>प्रणाम करना भी छोड़ दियाचुपचाप ध्यानमग्न खड़े पाया<br>पर मुझे क्या मालूम था कि वह अस्वीकृति हीमैं न कोई अज्ञात वनदेवता समझ<br>अटूट बन्धन बन करकितनी बार तुम्हें मेरी प्रणाम कर सिर झुकाया<br>पर तुम खड़े रहे अडिग-बद्ध अंजलियों में, निर्लिप्त, वीतराग, निश्चल!<br>कलाइयों में इस तरहतुम ने लिपट जायेगी कि कभी उसे स्वीकारा खुल ही नहीं !<br><br>पायेगी।
दिन पर दिन बीतते गये<br>और मैं ने तुम्हें प्रणाम करना भी छोड़ दिया<br>पर मुझे क्या मालूम था कि वह अस्वीकृति ही<br>अटूट बन्धन बन कर<br>तुम केवल निश्चल खड़े नहीं रहेमेरी तुम्हें वह प्रणाम-बद्ध अंजलियों में, कलाइयों में की मुद्रा और हाथों की गतिइस तरह<br>लिपट जायेगी भा गयी कि कभी खुल ही नहीं पायेगी।<br><br>तुम मेरे एक-एक अंग की एक-एक गति कोपूरी तरह बाँध लोगे
और मुझे क्या मालूम था कि<br>तुम केवल निश्चल खड़े नहीं रहे<br>तुम्हें वह प्रणाम की मुद्रा और हाथों की गति<br>इस तरह भा गयी कि<br>तुम मेरे एक-एक अंग की एक-एक गति को<br>पूरी तरह बाँध लोगे<br><br> इस सम्पूर्ण के लोभी तुम<br>भला उस प्रणाम मात्र को क्यों स्वीकारते ?<br>और मुझ पगली को देखो कि मैं<br>तुम्हें समझती थी कि तुम कितने वीतराग हो<br>कितने निर्लिप्त ! <br/poem>
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