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{{KKRachna
|रचनाकार=राजेंद्र तिवारी 'सूरज'
}}
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<poem>
सियासत ने कैसे चमन बाँट डाला ..
जला कर मेरा घर वतन बाँट डाला |
वो भाई जो कल तक हंसी का था रहबर
जो मेरे लिए जां की बाज़ी लगाता ..
जो मेरी हर एक चाह के वास्ते
ख़ुद अपनी ख़ुशी की बली था चढ़ाता ..
सियासत ने कैसे चमन बाँट डाला ..
जला कर मेरा घर वतन बाँट डाला ||
न जाने ये नफ़रत की कैसी हवा है ..
न जानूं ज़हर है ...न जानूं दवा है ..
उसे खोके ..ख़ुद को कहाँ जाके ढूँढू ..
ऐ मौला तेरे पास कुछ रास्ता है ?
के नफ़रत के काटों ने मन बाँट डाला ..
कि ममता की लोरी का धन बाँट डाला ..
सियासत ने कैसे चमन बाँट डाला ..
जला कर मेरा घर वतन बाँट डाला ..
</poem>
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सियासत ने कैसे चमन बाँट डाला ..
जला कर मेरा घर वतन बाँट डाला |
वो भाई जो कल तक हंसी का था रहबर
जो मेरे लिए जां की बाज़ी लगाता ..
जो मेरी हर एक चाह के वास्ते
ख़ुद अपनी ख़ुशी की बली था चढ़ाता ..
सियासत ने कैसे चमन बाँट डाला ..
जला कर मेरा घर वतन बाँट डाला ||
न जाने ये नफ़रत की कैसी हवा है ..
न जानूं ज़हर है ...न जानूं दवा है ..
उसे खोके ..ख़ुद को कहाँ जाके ढूँढू ..
ऐ मौला तेरे पास कुछ रास्ता है ?
के नफ़रत के काटों ने मन बाँट डाला ..
कि ममता की लोरी का धन बाँट डाला ..
सियासत ने कैसे चमन बाँट डाला ..
जला कर मेरा घर वतन बाँट डाला ..
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