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02:23, 12 जून 2020 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
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<poem>
बनजारा जब लौटा घर को
'''बन्द उसे सब द्वारा मिले ।'''
बदले-बदले से उसको सब
'''जीवन के किरदार मिले ।'''
नींद अधूरी हिस्से आई
सबको बाँटे थे सपने
गैर किसी को कब माना था
माना था सबको अपने ।
इन अपनों से बनजारे को
'''घाव बहुत हर बार मिले ।'''
भोर हुआ तो बाँट दुआएँ
चल देता है बनजारा
रात हुई तो फिर बस्ती में
रुक लेता है बनजारा ।
लादी तक देकर बदले में
'''सिर्फ़ दर्द -धिक्कार मिले।'''
आँधी, पानी ,तूफ़ानों में
कब बनजारा टिकता है
मन बावरा कभी ना जाने-
छल-प्रपंच भी बिकता है ।
ठोकर ही इस पार मिली है
'''ठोकर ही उस पार मिले ।'''
</poem>