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|रचनाकार= इरशाद अज़ीज़
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|संग्रह= मन रो सरणाटो / इरशाद अज़ीज़
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<poem>
साच तो आ है कै
जिकी म्हैं कैवूं
म्हारी सोच्योड़ी बात
कदैई गळत नीं हो सकै
माफ करजै भायला!
थूं जिको कैवै अर समझै
बो सौ-कीं गळत है
बो आपरी समझदारी सूं
बोलतो रैयो अर
म्हैं उणनै देख‘र
औ ईज सोचतो रैयो कै
कांई अैड़ा लोग भी
कवि हुवण रो दम भरया करै
जिकां रै हिवड़ै मांय
सिवाय जळण अर नफरत रै
कीं नीं है
जीसा कैवता हा-
मिनख कीं भी बण जावै
पण सै सूं पैली
चोखो मिनख बणनो जरूरी है
जिको चोखो मिनख होसी
बो सै कीं चोखो ई करसी।
</poem>
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