भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
और मेरा अगर कोई शत्रु है तो वह तुममें ही छिपा हुआ है
माफ़ करना कि इन दिनों की कोई काट नहीं है
जीवितों के भीतर जो डगमगाती-सी रोंशनी रौशनी दिखती थी
वह बुझ रही है
और मृतक बहुत चाहते हुए भी कुछ कर नहीं पाते