भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
पंछी मन ही मन घबराये।
यूँ, जाल बिछाये बैठे हैहैं
सब आखेटक मंतर मारे
आसमान के काले बादल
जैसे, जमा हुये है हैं सारे
छाई ऐसी घनघोर घटा
कुकुरमुत्ते सा, उगा हुआ है
गली गली, चौराहे खतराख़तरा
लुका छुपी का, खेल खेलते
वध जीवी ने, पर है कतरा
बेजान तन पर नाचते हैहैं
विजय घोष करते, यह साये।
पंछी उड़ता नीलगगन में
किरणे नयी सुबह ले आए।आये।
</poem>