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'''पाटलिपुत्र की गंगा से'''
 
संध्या की इस मलिन सेज पर
गंगे ! किस विषाद के संग,
सिसक-सिसक कर सुला रही तू
अपने मन की मृदुल उमंग?
::उमड़ रही आकुल अन्तर में
::कैसी यह वेदना अथाह ?
::किस पीड़ा के गहन भार से
::निश्चल-सा पड़ गया प्रवाह?
मानस के इस मौन मुकुल में
सजनि ! कौन-सी व्यथा अपार
बनकर गन्ध अनिल में मिल
जाने को खोज रही लघु द्वार?
गूंज रहे तेरे इस तट पर
गंगे ! गौतम के उपदेश,
ध्वनित हो रहे इन लहरों में
देवि ! अहिंसा के सन्देश।
::कुहुक-कुहुक मृदु गीत वही
विजयी चन्द्रगुप्त के पद पर
सैल्यूकस की वह मनुहार,
तुझे याद है देवि ! मगध का
वह विराट उज्ज्वल शृंगार?
अस्तु, आज गोधूलि-लग्न में
गंगे ! मन्द-मन्द बहना;
गाँवों, नगरों के समीप चल
कलकल स्वर से यह कहना,
::"खँडहर खंडहर में सोई लक्ष्मी का
::फिर कब रूप सजाओगे?
::भग्न देव-मन्दिर में कब
१९३१
 
 
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