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00:56, 30 जून 2020 इश्को जज़्बात पर।
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|रचनाकार=कविता भट्ट
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<poem>
क़ामयाबी भिखारन हुई; कि मुठ्ठियाँ भिंची हुई हैं।
खोजो न कोई हमदर्द, कि तलवारें खिंची हुई हैं।
हुनर सरेआम ठोकरें खाता यहाँ, फुटपाथ पर।
कौड़ियों का हुस्न हावी है, इश्को जज्बात पर।
महफिलें उठ चुकी, पर्दा भी गिर गया साहब।
कौन किसकी बात कहे, जब है जुबाँ गायब।
यह शहर हो चुका है- अंधा, गूँगा और बहरा।
मन के राग गाना जुर्म, सपनों पर घोर पहरा।
मगर उम्मीद वह नदी है, जो सागर तक जाएगी।
घने अँधियारे में भी, 'कविता' सँवर कर दिखाएगी।
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