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<poem>
हमीं तक रह गया क़िस्सा हमारा
किसी ने ख़त नहीं खोला हमारा

पढ़ाई चल रही है ज़िंदगी की
अभी उतरा नहीं बस्ता हमारा

मुआ'फ़ी और इतनी सी ख़ता पर
सज़ा से काम चल जाता हमारा

किसी को फिर भी महँगे लग रहे थे
फ़क़त साँसों का ख़र्चा था हमारा

यहीं तक इस शिकायत को न समझो
ख़ुदा तक जाएगा झगड़ा हमारा

तरफ़-दारी नहीं कर पाए दिल की
अकेला पड़ गया बंदा हमारा

तआ'रुफ़ क्या करा आए किसी से
उसी के साथ है साया हमारा

नहीं थे जश्न-ए-याद-ए-यार में हम
सो घर पर आ गया हिस्सा हमारा

हमें भी चाहिए तन्हाई 'शारिक़'
समझता ही नहीं साया हमारा
</poem>
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