{{KKRachna
|रचनाकार=महादेवी वर्मा
|अनुवादक=
|संग्रह=सांध्यगीत / महादेवी वर्मा
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>विरह की घडियाँ हुई अलि मधुर मधु की यामिनी सी!<br><br>
दूर के नक्षत्र लगते पुतलियों से पास प्रियतर,<br>शून्य नभ की मूकता में गूँजता आह्वान का स्वर,<br>आज है नि:सीमता<br>लघु प्राण की अनुगामिनी सी!<br><br>
एक स्पन्दन कह रहा है अकथ युग युग की कहानी;<br>हो गया स्मित से मधुर इन लोचनों का क्षार पानी;<br><br>
मूक प्रतिनिश्वास है<br>नव स्वप्न की अनुरागिनी सी!<br><br>
सजनि! अन्तर्हित हुआ है ‘आज में धुँधला विफल ‘कल’<br>हो गया है मिलन एकाकार मेरे विरह में मिल;<br><br>
राह मेरी देखतीं<br>स्मृति अब निराश पुजारिनी सी!<br><br>
फैलते हैं सान्ध्य नभ में भाव ही मेरे रँगीले;<br>तिमिर की दीपावली हैं रोम मेरे पुलक-गीले;<br><br>
बन्दिनी बनकर हुई<br>मैं बन्धनों की स्वामिनी सी!<br><br/poem>