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तुहिन और तारे / लावण्या शाह

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<poem>
आसमाँ पे टिमटिमाते अनगिनत
क्षितिज के एक छोर से दूजी ओर
छोटे बड़े मंद या उद्दीप्त तारे !

जमीन पर हरी दूब पे बिछे हुए,
हरे हरे पत्तों पर जो हैं सजीं हुईं
भोर के धुंधलके में अवतरित धरा
पर चुपचाप बिखरते तुहीन कण !
देख, उनको सोचती हूँ मैं मन ही मन
क्यों इनका अस्त्तित्त्व, वसुंधरा पर ?
मनुज भी बिखरे हुए, जहां चहुँ ओर
माँ धरती के पट पर, विपुल विविधता
दिखलाती प्रकृति, अपना दिव्य रूप !
तृण पर, कण कण पर जलधि जल में !
हर लहर उठती, मिटती संग भाटा या
ज्वार के संग बहते, श श ... ना कर शोर !
</poem>
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