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{{KKRachna
|रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन
|अनुवादक=
|संग्रह=मिलन यामिनी / हरिवंशराय बच्चन
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<poem>
खींचतीं तुम कौन ऐसे बंधनों से
 जो कि रुक सकता नहीं मैं--- 
काम ऐसे कौन जिसको
 
छोड़ मैं सकता नहीं हूँ,
 
कौन ऐसा मुँह कि जिससे
 
मोड़ मैं सकता नहीं हूँ?
 आज रिश्‍ता रिश्ता और नाता जोड़ने का अर्थ क्‍या क्या है? 
श्रृंखला का कौन जिसको
 
तोड़ मैं सकता नहीं हूँ?
 
चाँद, सूरज भी पकड़
 
मुझको नहीं बिठला सकेंगे,
 क्‍या क्या प्रलोभन दे मुझे वे 
एक पल बहला सकेंगे?
 
जब कि मेरा वश नही
 
मुझ पर रहा, किसका होगा?
 
खींचतीं तुम कौन ऐसे बंधनों से
 जो कि रुक सकता नहीं मैं--- 
उठ रहा है शोर-गुल
 
जग में, जमाने में, सही है,
 
किंतु मुझको तो सुनाई
 
आज कुछ देता नहीं है,
 
कोकिलों, तुमको नई ऋतु
 
के नए नग़मे मुबारक,
 
और ही आवाज़ मेरे
 वास्‍ते वास्ते अब आ रही है; स्‍वर्ग स्वर्ग परियों के स्‍वरों स्वरों के 
भी लिए मैं आज बहरा,
 
गीत मेरा मौन सागर
 
में गया है डूब गहरा;
 
साँस भी थम जाए जिससे
 साफ़ तुमको सुन सकूँ मै--- 
खींचतीं किन पीर-भींगे गायनों से
 जो कि रुक सकता नहीं मैं--- 
खींचतीं तुम कौन ऐसे बंधनों से
 जो कि रुक सकता नहीं मैं--- 
है समय किसको कि सोचे
 
बात वादों की, प्रणों की,
 
मान के, अपमान के,
 
अभिमान के बीते क्षणों की,
 
फूल यश के, शूल अपयश
 के बिछा दो रास्‍ते रास्ते में, 
घाव का भय, चाह किसको
 
पंखुरी के चुंबनों की;
 
मैं बुझता हूँ पगों से
 
आज अंतर के अँगारे,
 
और वे सपने के जिनको
 
कवि करों ने थे सँवारे,
 
आज उनकी लाश पर मैं
 पाँव धरता आ रहा हूँ--- 
खींचतीं किन मैन दृग से जलकणों से
 जो कि रुक सकता नहीं मैं--- 
खींचतीं तुम कौन ऐसे बंधनों से
 जो कि रुक सकता नहीं मैं---</poem>
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