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|रचनाकार= शिवजी श्रीवास्तव |अनुवादक=|संग्रह=
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तुम-हमारी ही तरह ,पलते हो ,बढ़ते हो,फलते हो, फूलते हो ,फैलते होफिर भी हमसे कितने अलग दिखते होक्योंकि,तुम वृक्ष हो मनुष्य नहीं।दो गज ज़मीन भी तो नहीं चाहिए तुम्हेंबस,बित्ते भर जगह में खड़े हो जाते हो,हवा से, धूप से , मिट्टी से और पानी सेअपना जीवन चलाते हो।धरती से खींच कर प्राण रसअपनी ऊर्जा से मीठे फल बनाते हो,दुनिया भर को खिलाते हो,और खुदआनन्द से नाचते हो/गाते हो/ताली बजाते होक्योंकि तुम वृक्ष हो मनुष्य नहीं।तुम्हारा अनंत विस्तार,तुम्हारा विराट रूप भीआतंकित नहीं करता किसी कोक्योंकि तुम जितना ऊपर बढ़ते होभीतर भी उतना ही उतरते हो,तुम्हें किसी से ईर्ष्या नहीं/द्वेष नहींतुम्हारे अंदर मद नहीं/मत्सर नहीं/मोह नहीं।तुम्हें किसी से कुछ लेना नहींबस देना ही देना है।तुम्हारे अंदरलय है,गति हैनृत्य है गीत हैआनन्द संगीत हैऔरसारे ज़माने परलुटाने के लिए प्रेम है,बस प्रेम हैक्योंकितुम वृक्ष हो मनुष्य नहीं।-----------------
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