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पहले एक घर थी धरती / अशोक शाह

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मकान
सभ्यता की पूर्ण विराम की तरह
गड़ें है धरती की छाती में
आदमी जब से पैदा हुआ
आदमी के रूप में
मकान बना रहा है
कच्चे-पक्के, छोटे-बड़े
और बढ़ा रहा बोझ
लुटा रहा चैन
धरती का
 
पहले एक घर थी धरती
अब बदल रही मकानों में
कंक्रीट और पत्थरों के
जिसके दीवारों के भीतर
दबी कैद है उसकी
अपनेपन की समीएँ
 
कहते हैं
जब से सभ्यता की शुरूआत हुई
और सोचने लगा था आदमी
बनने लगी थीं दीवारें
उन दीवारों से मकान
मकानों के भीतर मकान
 
ये मकान अब तक बन रहे हैं
और आदमी आज भी
सभ्य हुआ जा रहा है
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