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रिवायत / अशोक शाह

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मेरी तन्हाइओं को तानकर तुम रूठ गयी
खींचके तन्हे लम्हें करवट बदल ली
बेसमय जी रहा हॅू बिना उम्र का
तेरे दीदार हेतु उफ़क पर पलकें बिछाये
भेजा था चाँद को तुम्हारा हाल पूछने
महीना बाद लौटा है फिर अमावस होकर
तुम्हारे इंतजार में जीना ही रिवायत हो गयी है
तेरे तसव्वुर को ओढ़ता, तेरे लम्स बिछाता हूँ
 
मेरी नज़र टिकी है दरख़्त के उस पत्ते पर
तेरे एहसास को सम्भाले वह अबतक झड़ा नहीं है
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