|संग्रह=
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[[Category:ग़ज़ल]]{{KKCatGhazal}}{{KKAnthologyHusn}}{{KKAnthologyLove}}<poem>कुछ इशारे थे जिन्हें दुनिया समझ बैठे थे हमउस निगाह-ए-आशना को क्या समझ बैठे थे हम
कुछ इशारे थे जिन्हें दुनिया समझ बैठे थे हम<br>रफ़्ता रफ़्ता ग़ैर अपनी ही नज़र में हो गये उस निगाह-ए-आशना को क्या वाह री ग़फ़्लत तुझे अपना समझ बैठे थे हम<br><br>
रफ़्ता रफ़्ता ग़ैर अपनी ही नज़र में होश की तौफ़ीक़ भी कब अहल-ए-दिल को हो गये<br>सकी वाह री ग़फ़्लत तुझे अपना इश्क़ में अपने को दीवाना समझ बैठे थे हम<br><br>
होश की तौफ़ीक़ भी कब अहलबेनियाज़ी को तेरी पाया सरासर सोज़-एओ-दिल को हो सकी<br>दर्द इश्क़ में अपने तुझ को दीवाना इक दुनिया से बेगाना समझ बैठे थे हम<br><br>
बेनियाज़ी को तेरी पाया सरासर सोज़भूल बैठी वो निगाह-ए-नाज़ अहद-ओए-दर्द<br>दोस्तीतुझ उस को इक दुनिया से बेगाना भी अपनी तबीयत का समझ बैठे थे हम<br><br>
भूल बैठी वो निगाह-ए-नाज़ अहद-ए-दोस्ती<br>उस को भी अपनी तबीयत का समझ बैठे थे हम<br><br> हुस्न को इक हुस्न की समझे नहीं और ऐ 'फ़िराक़'<br>मेहरबाँ नामेहरबाँ महरबाँ ना-महरबाँ क्या क्या समझ बैठे थे हम <br><br/poem>