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{{KKRachna
|रचनाकार=रमेश तन्हा
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|संग्रह=तीसरा दरिया / रमेश तन्हा
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<poem>
इक चमकते हुए अहसास की जौदत हूँ मैं
देख ले जो पसे-पर्दा वो बसीरत हूँ मैं।

ऐ नये दौर मैं तू हूँ, तिरी जिद्दत हूँ मैं
बरहमी देख मिरी तेरी इलामत हूँ मैं।

क्या खरीदोगे मुझे फहमो-फिरासत हूँ मैं
खर्च करने से बढ़े और जो, दौलत हूँ मैं।

ख़ाक और खून की दिलबर सी शरारत हूँ मैं
हासिले-अर्ज़ो-समा, लम्स की लज़्ज़त हूँ मैं।

इक शफ़क़-रंग शिगूफा हूँ मैं शव के रुख़ पर
इक नई सुबहे-द्रखशां की बसीरत हूँ मैं।

मिट गई हो के जो मेहराबे-हवा पर तहरीर
बर्क़-रफ्तार किसी सोच की सुरअत हूँ मैं।

मेरा नज़्जारा है ज़रख़ेज़ ज़मीनों का सवाब
आप ही जिन्स हूँ और आप ही क़ीमत हूँ मैं।

मेरी तज़ईन किसी शय से कहां मुमकिन है
जिस में चुप तक भी खनक जाये वो उज़लत हूँ मैं।

कोई तो आके मुझर छेड़े, मुझे झंझोड़े
किसी वीरान जज़ीरे की फरागत हूँ मैं।

मुझ में किरदारे-जमां लम्हा-ब-लम्हा बेदार
वरना लम्हों की अबद तक की मुसाफत हूँ मैं।

कोई भी शय मुझे बेदार नहीं कर सकती
एक उजले हुए किरदार की गफलत हूँ मैं।

कत्ल करता हूँ मैं औरों के भरम में खुद को
अपनी ही जान पे खुद आप ही आफ़त हूँ मैं।

मेरा पत्थर का जिगर है तो बदन लोहे का
मुझ से टक्कर न कोई ले कि सलाबत हूँ मैं।

मुझे भूले से भी 'तन्हा' कहीं छू मत लेना
इक दहकते हुए अहसास की हिद्दत हूँ मैं।
</poem>
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