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{{KKRachna
|रचनाकार=रमेश तन्हा
|अनुवादक=
|संग्रह=तीसरा दरिया / रमेश तन्हा
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<poem>
पहले खुद को आइने जैसा करो
आइने में खुद को फिर देखा करो।

हर किसी के भी न हो जाया करो
साथ अपने खुद को भी रक्खा करो।

आइने से रोज़ क्या पूछा करो
अपने अंदर आप ही झांका करो।

ज़िन्दगी क्या है? समझने के लिए
खुद को खो कर खुद ही को ढूंढा करो।

सिर्फ होना ही नहीं है ज़िन्दगी
अपने होने का सबब पैदा करो।

पहले खो जाओ ख़लाओं में कहीं
तारा तारा खुद को फिर ढूंढा करो।

आइनों से दोस्ती अच्छी नहीं
यूँ न खुद को टूट कर चाहा करो।

क्या खबर लग जाये कब किस की नज़र
अपने भी आगे से मत निकला करो

ज़िन्दगी है आप ही अपना जवाज़
ज़िन्दगी क्या है ये यूँ सोचा करो।

मत करो तशहीर अपनी ज़ात की
हो सके तो खुद से भी पर्दा करो।

क्यों न ला-मज़हब दरख़्तों की तरह
सब पर अपने लुत्फ़ का साया करो।

अपना सर तक भी न कांधों पर रहे
इस क़दर भी खुद को मत 'तन्हा' करो।

</poem>
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