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|संग्रह=तीसरा दरिया / रमेश तन्हा
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<poem>
मिरी ज़िन्दगी दर्द की सान है
यही मेरी हस्ती का उन्वान है।

चलो खैर माना वो शैतान है
किसी ज़ाविये से तो इंसान है।

ज़मानो-मकां उसकी मुट्ठी में हैं
जो धरती पे दो दिन का मेहमान है।

अंधेरे को शायद खबर ही नहीं
वो क्या रौशनी से परेशान है।

मुझे देख कर आइना चीख उठा
मिरी तरह तू भी तो हैरान है।

अंधेरों की नगरी के वासी हैं हम
हमें ही कहां अपनी पहचान है।

न है धुंध छटने की उम्मीद कुछ
न मौसम बदलने का इमकान है।

वही चार सांसें तअफ़्फुन भरी
यही ज़िन्दगी भर का सामान है।

गरीबों को फुटपाथ अमीरों को घर
बड़े शहर का सब पर एहसान है।

कोई कुछ किसी दूसरे के लिए
करेगा नहीं लेकिन इमकान है।

तुम्हारा अगर साथ मिलता रहा
तो फिर कोई मुश्किल आसान है।

तुझे मेरी हर बात की फ़िक्र है
मुझे तेरी हर बात का ध्यान है।

दो आलम हैं मेरी नज़र का ग़ुबार
मिरा नाम इदराक, इरफान है।

अदावत उसे मुझ से होगी तो हो
वो 'तन्हा' मिरे दिल का अरमान है
</poem>
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